दंगे फसाद ।
यहाँ भ्रष्टाचार, वहाँ आग,
डरे सहमे बचे
सहमा हुआ बुढ़ापा,
सवाल है जवानों के,
असुरक्षित भविष्य का
दबाव राजनीति का.
जो कुर्सी पर बैठता है.
नचाना चाहता है,
बस नचाना चाहता है।
घुस पड़ते बीच में,
स्वदेशी, विदेशी, हाथ,
उफ्फ!
सहा नहीं जाता,
यह दर्द, अदृश्य.
घाव, छाले,
दिखाई नहीं देते।
मुस्कुराता हुआ चेहरा
चंद कहकहे.
छुपा देता है,
जहर जो पी रहे.
हँसते-विहँसते जी रहे।
संत मीरा की तरह
किसी गिरधर का नाम नहीं
जिंदा रहने के मोह में।
जिन्दगी के नाम पर
विषपान कर रहे।
छिः ।
कायरता को छुपाने
का थोथा बहाना
यह आतंक छुरे….
अपने ही भाइयों का
लहू…गिरता हुआ देखते
व्यभिचार, बलात्कार
बस जीवन का विष
गले नहीं उतरता।
नीलकंठ जैसी शक्ति
नहीं रही जनता में,
कुर्सियों पर बैठनेवाले,
शक्तिशाली?
यह? वह?
तुम? हम ? मैं?
दस्तक दे रही
तुम्हारी दिलों पर
आज ” इन्दु”
कौन रोकेगा इनको ?