बौना

मैं जब भी तुम्हारी
ऊँचाई को देखता हूँ
बेबस हो जाता हूँ,
दिल से चीखें
उठती हैं ।
जी चाहता है…
तुम्हारी ऊँची,
प्रकाशित शिखा को,
बडी सी,
चादर बन कर, ढाँप दूँ ।
मेरा दर्द दूना
घाव , रिसने, तब लगते हैं
जब जब देखता हू
आने जाने वाले
अनजाने राहगीरों के कदम
तुम्हें देख कर ठिठक कर
रुक जाते हैं ।
उनके सिर श्रद्धा से
झुक जाते हैं। तो मैं,
पागल हो उठता हूँ ।
झुंझला और खीझ
उठता हू |
में तुम्हारी ऊंची शिखा पर
अपने बौने
मन और शरीर से,
लातों,
घूसों और गालियों की,
बौछार करता हूँ।
खिसियाता, चिल्लाता, बड़बड़ाता,
विकता रहता हूँ।
लोगों को तुम्हें देखने से,
मना करता हूँ।
तुम्हारा प्रकाश नोचने की,
गंदी साजिशें भी,
करता रहता हूँ ।
में, भीतर ही भीतर,
तुमसे डरता रहता हूँ ।
लेकिन उफ्फ!!!
तुम्हारे नूर का उजाला
फैलता ही जा रहा है।
कुछ लोग,
पुजारी बनते जा रहे हैं।
तो कुछ साथी ।
और मैं, हक्का-बक्का सा
घिसता घिसता
और भी बौना,
होता जा रहा हूँ ।