रात के सन्नाटे में
एक वजूद उभरता है।
शांत….
अपने आप में ही
मग्न, समस्त विश्व की
समस्याओं को
अपना समझनेवाला ।
सहानुभूति से भरा
बाग़ी अकेली कवयित्री का।
पत्नी, माँ, मालकिन
बेटी, बहन सब रिश्ते
सारे पद धुंधले-धुंधले से
मिटे हुए से,
सब्जीवाले, धोबी, नौकरानी,
बजेट, खर्च, बच्चे,
पड़ोसियों की नोक झोंक,
किस की चुटकी,
किस की चिढ़
किसी का चाँटा
किसी की शरारत
सब धुंधले से
काया के बोझ रहित।
एक सूक्ष्म आत्मा उठती है।.
कुछ लिखती रहती है।
कुकड….. कू के आवाज़ के
समय सोती है
दूध वाले के दस्तक के साथ
जागती है ।
और न खत्म होनेवाला काम
न समाप्त होने वाला शोर
रिश्तों-नातों को संभालकर
भागती-दौड़ती रहती है।
वह काया,
वह देह दिन भर,
फिर प्रतीक्षा करती है,
उस रात के सन्नाटे का।
रात के सन्नाटे में
लिखती रहती है,
कुछ बुदबुदाती रहती है,
कुछ कहती रहती है,
कुछ गुनगुनाती रहती है,
एक सूक्ष्म आत्मा
रात के सन्नाटे में।